पूजा अर्चना कर मंगल गीतों के साथ धान की रोपाई शुरू, देश की संस्कृति और परंपरा को आज भी नहीं लोग भूले हैं

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✍️देवब्रत मंडल

कृषि क्षेत्र में भारत आत्मनिर्भर बनने के लिए सतत प्रयास करता रहा है। खाद्यान्न की कमी होने पर देश में दूसरे देशों से आयात किया जाता है। अब तो किसान नई तकनीकों के सहारे अन्न के उत्पादन में काफी आगे निकल गए हैं लेकिन भारत की संस्कृति और परंपराओं को भला कोई कैसे भूल सकता है। आज कृषि के क्षेत्र में विज्ञान की अनिवार्यता हो चली है। खेतों की जुताई अब हल-बैल से कम होती है लेकिन अभी भी बिहार के किसान हल बैल से खेतों की जुताई करने के बाद ही खरीफ सीजन में अनाज का उत्पादन करते हुए देखे जाते हैं। कृषि को उद्योग का दर्जा अबतक नहीं दिया जा सका है। जबकि इसकी मांग निरंतर जारी है। आज हम बात कर रहे हैं अपनी संस्कृति और परंपराओं की। बिहार के किसान खासकर दक्षिण बिहार में धान की फसल बारिश पर ही निर्भर करते हैं। धान की रोपाई का काम अब शुरू हो चुका है। ऐसे में पारंपरिक तरीके से धान की बुआई को भला कैसे भूला जा सकता है।

कृषकों के अनुसार वर्षा ऋतु में धान की रोपनी शुरू की जाती है और इंद्र भगवान की पूजा की जाती है। ताकि खेतों में समय समय पर बारिश होती रहे और रोपे गए धान के पौधे से पैदावार हिश्ट् पुष्ठ रहे। किसान के घर की महिलाएं धान रोपने की परंपरा को आज भी जीवित रखे हुए हैं। गया के किसान रघुवीर प्रसाद कहते हैं कि धान की रोपाई शुरू करने से पहले खेतों में पूजा अर्चना करते हैं। नगर प्रखंड के कोरमा पंचायत की गीता देवी ने बताया कि उत्तर-पश्चिम कोने पर कोठी(मिट्टी से बने छोटे आकार) में धान और चावल को रखकर ढक दिया जाता है। इसके बाद इनकी पूजा अर्चना की जाती है ताकि अन्न का भंडार हमेशा भरा रहे। इसी कारण से भी उत्तर-पश्चिम दिशा के कोने को ‘भंडार कोना’ भी कहा जाता है।

साथ में धान रोपने वाली महिलाएं इंद्रदेव के साथ भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण को भी स्मरण करते हुए मंगल गीत गाती हैं।
हालांकि बिहार में धान की रोपाई करने के पहले बीज से बिचड़ा तैयार करते हैं। विशेष रूप से आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष शुरू होने के बाद ही धान की रोपाई की जाती है। अंग्रेजी महीने की बात करें तो जून-जुलाई के मध्य धान की रोपनी की जाती है। बिहार के भोगौलिक दृष्टिकोण से देखें तो जून के प्रथम सप्ताह से यहां मॉनसून प्रवेश करता है। समय पर मॉनसून के प्रवेश करने का समय जून-जुलाई के बीच का समय माना जाता है। किसान इस मौसम का केवल इंतजार ही नहीं करते हैं बल्कि खरीफ फसलों की बुआई के लिए खेतों को उत्तम उत्पादन के लायक तैयार कर लिया करते हैं।

इस मौसम में सब्जियों की खेती करने वाले किसान भी मॉनसून आने से कुछ दिन पहले खेतों की जुताई कर अच्छे से तैयार कर लेते हैं। इसके बाद दक्षिण बिहार में मक्का(मकई), भिंडी, नेनुआ( कहीं इसे तोरी तो कहीं इसे घिउरा भी कहते हैं)’ कद्दू, कोहड़ा, आदि सब्जियों के बीज की रोपाई करते हैं। जिसके पौधे सही से तैयार हो जाते हैं और समय से फूलने और फलने लगते हैं।

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