राजनीति या पारिवारिक धरोहर? बिहार के नेताओं की चुनावी परंपरा

Deepak Kumar
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✍️दीपक कुमार

बिहार की राजनीति में परिवारवाद एक ऐसी परंपरा है जिसे यहां के नेता बड़े शौक से निभाते हैं। यह परंपरा इतनी पुरानी है कि इसे छोड़ना पाप मान लिया गया है। राजनीतिक गलियारों में परिवारवाद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इससे उबरना नेताओं के लिए नामुमकिन सा लगता है। आखिर, जो चीज़ सालों से ‘पारिवारिक धरोहर’ की तरह चली आ रही हो, उसे अचानक कैसे छोड़ा जा सकता है?

पुरखों की विरासत: राजनीति की बपौती

बिहार में राजनीति का ‘धंधा’ परिवार की संपत्ति की तरह चलता है। जैसे खेत-खलिहान और दुकानें बच्चों में बांटी जाती हैं, वैसे ही यहां राजनीतिक कुर्सियां भी विरासत में मिलती हैं। राजनीति में परिवारवाद इस कदर हावी है कि अगर बिहार के किसी नेता के बच्चों या रिश्तेदारों को टिकट नहीं मिलता, तो ये उनके घर में कलह का कारण बन सकता है। आखिर, परिवार की “संपत्ति” है, तो उसका लाभ परिवारवालों को ही मिलना चाहिए!

राजनीति: परिवार की सेवा का नया स्वरूप

यहां के नेता तो इसे “जनता की सेवा” कहते हैं, लेकिन असल में ये “परिवार की सेवा” होती है। किसी नेता के बेटे को टिकट मिल जाए, तो इसे “राजनीति में नई पीढ़ी का आगमन” कहकर महिमामंडित किया जाता है। अगर बेटी या बहू चुनाव मैदान में उतरे, तो इसे “महिला सशक्तिकरण” का उदाहरण बताया जाता है। और अगर भतीजा, भांजा, साला या चचेरा भाई भी उम्मीदवार बन जाए, तो इसे “पारिवारिक एकता” का प्रतीक माना जाता है।

दिव्य परिवारवाद: एक चमत्कार

बिहार की राजनीति में परिवारवाद एक चमत्कार जैसा है। चाहे किसी पार्टी का नाम कुछ भी हो, लेकिन परिवारवाद हर जगह समान रूप से देखा जा सकता है। एनडीए हो या इंडिया गठबंधन, दोनों ही इस ‘दिव्य परंपरा’ को निभाने में पीछे नहीं रहते। राजद के नेता अपने बच्चों को टिकट देने में आगे रहते हैं, तो जदयू और हम पार्टी भी इस परंपरा को निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ती।

हमारे नेताओं का विश्वास है: “परिवारवाद एक ऐसी सीढ़ी है, जो राजनीति में ऊपर चढ़ने के लिए सबसे बढ़िया रास्ता है।” इसलिए, यहां हर नेता अपने वंश को आगे बढ़ाने में ही विश्वास करता है।

जनता की प्रतिक्रिया: ‘जो है, सो है’

अब आप सोच रहे होंगे कि जनता क्या सोचती है? जनता ने भी इसे ‘कर्म’ मान लिया है। जो है, सो है। हर चुनाव में जब वही चेहरे दिखाई देते हैं, तो जनता भी समझ जाती है कि ये नेता जनता की समस्याओं से नहीं, बल्कि परिवार की समस्याओं से ज्यादा चिंतित हैं। लेकिन फिर भी, चुनाव के समय उन्हीं ‘पारिवारिक’ चेहरों को देखकर जनता अपना वोट दे आती है।

समाप्ति पर एक सवाल: क्या कभी बदलेगा यह परिदृश्य?

बिहार की राजनीति में परिवारवाद का इतिहास और वर्तमान ऐसा है कि इसमें बदलाव की उम्मीद करना किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। नेताओं की अगली पीढ़ी भी अब राजनीति में उतर रही है। कौन जाने, अगले चुनाव में कौन-सी नई बहू, बेटा, भाई या भतीजा मैदान में उतरेगा!

परिवारवाद बिहार की राजनीति में एक ऐसा ‘अमूल्य रत्न’ है, जिसे छोड़ने का कोई इरादा नहीं दिखता। और जनता? वह तो बस यह सोचती है—”बदलाव कभी नहीं आएगा, क्योंकि यहां तो हर सीट का वारिस पहले से तय है!”

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